प्रेम क्या है ?
प्रेम का मतलब है कि एकात्म का अनुभव, एक हो जाना, जहाँ द्वेत समाप्त हो जाता है, जहाँ द्वेत के पार कि अनुभूति है, जहा अद्वेत होता है ।
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किसी साधक
ने जब मुझसे पूछा कि-
‘स्वामीजी क्या आप परमात्मा को परिभाषित कर सकते है ?
तो मैंने कहाँ कि परमात्मा के बारे में बयां करना असंभव है और कोई भी भाषा या शब्द उसे कहने में असमर्थ है ,सत्य, परमात्मा तो अनुभूति का विषय है, कहने का नही, सत्य में तो हुआ जाता है, जिया जाता है, जाना जाता है, जितना भी अभी तक कहा गया है वो भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता है, क्योंकि जो शब्दों के परे है उसको शब्दों में केसे बयाँ कर सकते है फिर भी जो परिभाषा में अपने अनुभव के आधार पर कहने का प्रयास भर कर सकता हूँ वो में तुम्हें कहता हूँ :
‘स्वामीजी क्या आप परमात्मा को परिभाषित कर सकते है ?
तो मैंने कहाँ कि परमात्मा के बारे में बयां करना असंभव है और कोई भी भाषा या शब्द उसे कहने में असमर्थ है ,सत्य, परमात्मा तो अनुभूति का विषय है, कहने का नही, सत्य में तो हुआ जाता है, जिया जाता है, जाना जाता है, जितना भी अभी तक कहा गया है वो भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता है, क्योंकि जो शब्दों के परे है उसको शब्दों में केसे बयाँ कर सकते है फिर भी जो परिभाषा में अपने अनुभव के आधार पर कहने का प्रयास भर कर सकता हूँ वो में तुम्हें कहता हूँ :
परमात्मा
: "जो अनंत दिशाओ से, अनन्य भाव से, सदा, सभी काल में, सभी प्राणियो को समान रूप से बेशर्त
प्रेम करता है, वही परमात्मा है ।”~~महाशुन्य
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