प्रेम और अहंकार :
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महाशुन्य में शून्य मिल सकता
है ,केवल बीच में जो अहंकार ( मैं ) कि दीवार है इसीलिए नहीं मिल पाता । अगर तुम
शून्य हो जाओ यानि तुम्हारा अहंकार नष्ट हो जावे तो फिर तुम्हारा प्रेम महाशुन्य
से हो जायेगा ,फिर तुममें (शून्य) और महाशुन्य में कोई भी भेद नहीं रह जायेगा ,जैसे
एक बूंद सागर में विलीन होकर सागर ही हो जाती है ,वैसे ही एक शून्य महाशुन्य में
विलीन होकर महाशुन्य ही हो जाती है । यही वास्तविक प्रेम कि घटना है ।
कबीर को कहना पड़ा :
“हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई,
बुंद समानी
समुंद में सो कत हेरी जाई ॥“
“हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई,
समुंद समाना
बुंद में सो कत हेरी जाई ॥“
बूंद सागर में गिरे या सागर बूंद में दोनों ही घटनाये एक है
,एक में बूंद मिटती है और सागर ही हो जाती है और दुसरे में बूंद अपने को सागर ही
अनुभव करने लगती है ।
कबीर ने एक दोहे में बहोत ही
सुंदर ढंग से कहा है कि :
“जब मैं था तो हरी नाही, अब हरी है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो ना समाई ॥“
जब तक दो है तब तक प्रेम नहीं है ,या तो आप रह लो या परमात्मा को रहने दो,ये प्रेम कि गली अति सकरी है ।
जब तक दो है तब तक प्रेम नहीं है ,या तो आप रह लो या परमात्मा को रहने दो,ये प्रेम कि गली अति सकरी है ।
मीरा मिटी
तो कृष्ण ही हो गई, चैतन्य महाप्रभू मिटे तो परमात्मा कि मस्ती में डूब गए जैसे
नमक का पुतला सागर में सागर कि गहराई खोजते-खोजते सागर में ही विलीन हो जाता है और
सागर ही हो जाता है । बूंद है आपका अहंकार और सागर है परमात्मा । जब तक अहंकार है
तभी तक बूंद है और अहंकार मिटा तो बूंद नहीं रहे सागर ही रह गये।
प्रेम प्रत्येक व्यक्ति कि
आत्यंतिक प्यास है क्योंकि हम सब भी प्रेम-स्वरुप ही है । जिसकी जिंदगी में जितना
प्रेम है उतना ही वो तृप्त है; जितना प्रेम कम है उतना ही वो अतृप्त है ।"~~महाशुन्य
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